उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
अभिमानी का सिर नीचा होता है, परन्तु इस संसार में ऐसे लोग भी हैं जो सिर नीचा होने पर भी, उसको नीचा नहीं मानते। ऐसे लोगों के लिए ही कहावत बनी है–‘रस्सी जल गई, पर बल नहीं टूटे’।
इसका कारण मनुष्य की आद्योपांत विवेक-शून्यता है। विवेक अपने चारों ओर घटने वाली घटनाओं के ठीक मूल्यांकन का नाम है।
मन के विकार हैं–काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार। जब इन विकारों के कारण बुद्धि मलिन हो जाती है तो वह ठीक को गलत और गलत को ठीक समझने लगती है। इसको विवेक-शून्यता कहते हैं।
मन के विकारों में अहंकार सबसे अन्तिम और सबसे अधिक बुद्धि भ्रष्ट करने वाला है। अहंकारवश मनुष्य ठोकर खाकर गिर पड़ता है, बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। बुद्धि भ्रष्ट हो जाने से वह नहीं मानता कि वह गिर पड़ा है अथवा उसका अभिमान व्यर्थ था। वह अपनी भूल स्वीकार नहीं करता और अन्त तक कहता रहता है–मैं न मानूँ, मैं न मानूँ।
‘मैं न मानूँ’ एक ऐसी ही, परन्तु घर-गृहस्थी की कहानी है।
प्रथम परिच्छेद
1
पंजाब यूनिवर्सिटी की मैट्रिक की परीक्षा हो रही थी। लाहौर मॉडल स्कूल में भी एक-परीक्षा केन्द्र था। उस दिन का प्रथम-परीक्षा-पत्र देकर लड़के स्कूल के हॉल से बाहर निकले तो भगवानदास भी बाहर आया और लड़कों में दृष्टि दौड़ा किसी को ढूँढ़ने लगा। प्रायः सभी लड़के परस्पर अपने प्रश्नों के उत्तर मिला रहे थे।
भगवानदास की दृष्टि सबसे पृथक खड़े एक लड़के पर पड़ी। वह उसी ओर चल पड़ा। मार्ग में एक अन्य लड़के ने पूछा, ‘‘भगवान! दूसरे सवाल का क्या जवाब है?’’
भगवान ने मुस्कराते हुए कहा, ‘जो तुम अपने पर्चे में लिख आए हो।’’
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